6 सितंबर 2014

७. जंगलों में - कल्पना रामानी

सोच में डूबा हुआ मन
जब उतरता जंगलों में।
वे हरे जीवन भरे दिन
याद करता जंगलों में।

कल जहाँ तरुवर खड़े थे
ठूँठ दिखते उस जगह।
रात रहती है वहाँ केवल
नहीं होती सुबह।
और कोई एक दीपक
भी न धरता जंगलों में।

घर से ले जातीं मुझे थीं
जो वहाँ पगडंडियाँ।
अब चुरातीं हैं नज़र
कैसे करें हालत बयाँ
है पता मुझको मगर
हर प्राण डरता जंगलों में।

देखती थी मुग्ध हरियल
पेड़ लहराते हुए।
स्वर्ण आभा प्रात की
औ’ साँझ गहराते हुए।
क्या हसीं मोहक नज़ारा
था उभरता जंगलों में।

अब कहाँ प्यारे परिंदे
वनचरों का कारवाँ।
निर्दयी हाथों ने जिनका
रौंद डाला आशियाँ।
खौफ ही बेखौफ होकर
अब विचरता जंगलों में।

- कल्पना रामानी
मुंबई

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